तक़लीद के अहकाम * ( म.न. 1- ) हर मुसलमान के लिए ज़रूरी है कि वह ऊसूले दीन को अक़्ल के ज़रिये समझे क्योंकि ऊसूले दीन में किसी भी हालत में तक़लीद नही की जासकती यानी यह नही हो सकता कि कोई इंसान ऊसूले दीन में किसी की बात सिर्फ़ इस लिए माने कि वह ऊसूले दीन को जानता है। लेकिन अगर कोई इंसान इस्लाम के बुनियादी अक़ीदों पर यक़ीन रख़ता हो और उनको ज़ाहिर भी करता हो तो चाहे उसका यह इज़हार उसकी बसीरत की वजह से न हो तब भी वह मुसलमान और मोमिन है। लिहाज़ा इस मुसलमान पर इस्लाम और ईमान के तमाम अहकाम जारी होंगे। लेकिन “मुसल्लमाते दीन”[2] को छोड़ कर दीन के बाक़ी अहकाम में ज़रूरी है कि या तो इंसान ख़ुद मुजतहिद हो, (यानी अहकाम को दलील के ज़रिये ख़ुद हासिल करे) या किसी मुजतहिद की तक़लीद करे या फ़िर एहतियात के ज़रिये इस तरह अमल करे कि उसे यह यक़ीन हासिल हो जाये कि उसने अपनी शरई ज़िम्मेदारी को पूरा कर दिया है। मसलन अगर चन्द मुजतहिद किसी काम को हराम क़रार दें और चन्द दूसरे मुजतहिद कहें कि हराम नही है तो उस काम को अंजाम न दे, और अगर कुछ मुजतहिद किसी काम को वाजिब और कुछ मुसतहब माने तो उस काम को अंजाम दे...
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